शहरों से आये गांव में लोटेंगे–डॉ.राजेन्द्र कुकसाल उद्यान विशेषज्ञ
प्रदीप कुमार श्रीनगर गढ़वाल। रोजगार/अच्छे भविष्य की तलाश में अन्य प्रदेशों से अपने राज्य उत्तराखंड में आये मूल निवासियों से अपील-रोजगार हेतु सोच विचार कर अपने व्यवसाय या योजनाओं में लगायें धन। विभागों और गैर सरकारी संगठनों एनजीओ की अधिकतर योजनाएं का प्रचार-प्रसार व लाभप्रद होना तभी तक दिखाई देता है जब तक उन योजनाओं में सरकारी अनुदान रहता है। इसलिए सोच विचार व धैर्य रख कर सरकारी/गैर सरकारी रोजगार परक योजनाओं में करें निवेश। शेखर जोशी एवं चन्द्रेश्वर योगी के अनुभव साझा कर रहा हूं। शहरों से आए गांव में लुटेंगे,चन्द्रशेखर जोशी (नैनीताल समाचार खूबसूरत सपने बर्बादी का कारण बनेंगे। सरकार की योजना पक्की है। गांव वालों को नासमझ कहने वालों ने अब खुद उद्यमी बनने की ठानी है। अधेड़ शहरों से बचत लेकर पहुंचे हैं,युवाओं की नजर बाप के पैसे पर टिकी है। घरों में रात-दिन व्यवसाय की चर्चा है। दिमाग में उमड़-घुमड़ कर विभागों की योजनाएं गूंजती हैं। सपने बैंक के सस्ते लोन पर सजे हैं। 1990-92 के बीच एक एनजीओ ने उत्तराखंड के पहाड़ों में खूबसूरत लिलियम फूल उगाया। कुछ किसानों ने बड़ी मिन्नतें कर फूल के कंद मांग लिए। यह फूल घरों के पास क्यारियों की शोभा बढ़ाने लगा। एनजीओ ने फूल बेचकर धन कमाया और फाइलें बना कर सरकार से मोटी रकम वसूली। इसके बाद एनजीओ गायब हो गया। कुछ सालों पहले एक एनजीओ फिर फूल और फाइलें लेकर गांवों में आया। मोटी कमाई की बात सुन गांव वाले लिली हो उठे। एनजीओ ने सरकार के सामने प्रोजेक्ट पेश किया। गांव वालों को फूल के कंद बेचे। जलागम और ग्राम्य संस्था ने पहाड़ के दर्जनों गांवों में फूल उगाए। एक साल किसानों को फूल बेचने के एवज में पैसा मिला। इसके बाद आसपास के गांव वालों में भी धान-गेहूं,सब्जी छोड़ लिलियम उगाना शुरू कर दिया। जब उपज बढ़ी तो एनजीओ ने बाद में धन देने का वादा कर फूल ले लिए। संगठन कारोबार समेट चलते बने,करीब पांच साल से किसानों को फूल के रुपए नहीं मिले। लिली के पौधे ठूंठ बन गए,एक साल बाद खेत बंजर हो गए। फूलों का कारोबार बड़े फार्म हाउसों से चलने लगा। बड़ा आदमी बनने का धंधा होटल व्यवसाय में खूब फला। कुछ युवाओं ने भी इस धंधे में हाथ आजमाए। वीरचंद्र सिंह गढ़वाली सरीखी योजना में कुछों ने लीज एग्रीमेंट किए,कुछ अपनी जमीन पर भवन बना बैठे। पर्यटन नगरों के अलावा कहीं भी ये होटल फलीभूत न हुए। कर्ज की किस्तें चुकाने में फर्नीचर,बर्तन समेत घर की संपत्ति भी बिक गई। कमजोर घरों के युवाओं ने टैक्सी वाहन खरीद जीवन चलाने का प्रयास किया,इस काम में तुरंत रुपए आने लगे,सालभर तक बैंकों की किस्तें गई। दिन-रात दौड़ते अधिकतर युवक शराब बाजी में पड़ गए। जब वाहन के मेंटिनेंस के खर्चे बढ़ने लगे तो किस्त चुकाना दूभर हो गया। इस धंधे से जुड़े 25-30 साल के युवक 50 की उम्र के लगते हैं। कई युवा गंभीर बीमारियों से घिर चुके। दुकानों में इतनी प्रतियोगिता है कि उपकरण,निर्माण सामग्री,परचून,रेडीमेड कपड़ों की दुकानें गर अपनी हैं तो घर का खर्च निकलता है,किराए वाली दुकानें बंद होने के कगार पर हैं। रोजगार के लिए बैंकों की सूदखोरी में फंसने वाले युवा जल्द अवसाद में जाएंगे। मेहनती गरीब घरों के युवक खेती,दिहाड़ी-मजूरी कर जीवन चलाते रहेंगे। धनवानों ने कमाई वाले कोई कारोबार गरीबों के लिए नहीं छोड़े हैं। रोजगार देना सरकार की जिम्मेदारी है,पर सरकार ने बैंकर्स की दुकानों में युवाओं के खून का कतरा-कतरा जमा करने की योजना बना दी है। स्वप्निल उद्यमी सुशांत सिंह बनने की न ठानें,धैर्य रख सरकार से अपना हक मांगें। चन्द्रेश्वर योगी सन 2003 में उत्साहित होकर कुछ अलग करने को हमने तिल की खेती की,ऐसी जबर्दस्त और अभूतपूर्व खेती हुई की हर देखने वाला खुश हो गया,तैयार फसल बोरों में भर के जब नजीबाबाद मंडी पहुंचे तो जो भाव लेकर घर पहुंचे तो सारा उत्साह चूर था। 2012 में जलागम योजना और उसके विशेषज्ञों से प्रभावित होकर लेमन ग्रास आयल का भूत चढ़ा और ढेड़ लाख रूपये में एक ऑयल डिस्टिलेशन प्लांट भी लगा दिया गया,खेतो में लेमन ग्रास,जामा रोजा,पामा रोजा लगा दिया,सात सौ से आठ सौ रूपये प्रति लीटर बाजार में बिकता था,फसल हुई और जबर्दस्त हुई देखने वाले खुश हो गए,तारीफ पे तारीफे आयल डिस्टिल्ड हुआ और शुद्ध कन्सन्ट्रेट गाढ़ा लेमन ग्रास हमारे पास था। अब आई बिक्री की बारी तो अधिकारी बगले झांकने लगे उनका काम सिर्फ फसल उगवा के फोटो खिंचवाने तारीफ करने तक था क्योंकि वही तक राज्य की नीति थी और उसी के उन्हें पैसे,सेलरी मिलती थी उसके आगे राज्य की नीति और दर्शन दृष्टिहीन था। खैर खोजते खोजते तेल लेकर दिल्ली खारी बावली मंडी पहुंचे 120 रूपये प्रति लीटर पे बात तय हुई,शक्ल ऐसी हो रही थी जैसे किसी लापरवाह और पढ़ने में कमजोर बच्चे का चेहरा उस वक्त होता है जब पिता के हाथों में स्कूल का सालाना रिपोर्ट कार्ड हो चायना के पिचहत्तर रूपये प्रति लीटर लेमन ग्रास ऑयल के आगे हमारा ऑयल कहा टिकता चायना से इतनी बड़ी मात्रा में लेमन ग्रास ऑयल आयात करने लगे थे भारतीय व्यापारी की वो हजार रुपये प्रति लीटर से गिरते गिरते सौ भी नही रह पाया। ठीक अगले साल सफेद मूसली का इरादा बन गया,वही सफेद मूसली जिसके बने दलिया या न जाने कौन सा उत्पाद था जिसका ऐड जैकी श्रॉफ उन दिनों कर रहा था और शारीरिक स्टेमिना के लिए जो औषधि विभिन्न प्रकार से यूज होती है। आठ से नौ सौ रूपये किलो बाजार में बिकती देख हम बड़े उत्साहित थे बस खेती शुरू हो गयी और फसल फिर जबर्दस्त चाहे कुछ भी हो खेती में हमारे बड़े ताऊ और माता मुझे शत प्रतिशत यकीन है कि भारत के सबसे बड़े उद्यान विशेषज्ञों से ठीक ठाक ही होंगे। खैर जबर्दस्त मूसली हुई और फिर विक्रय की समस्या किसी तरह खारी बावली दिल्ली की मंडी पहुंचे,जहा एक वक्त प्रतिबंध लगने से पहले अरबों का कत्था (जी हां पान में प्रयोग होने वाला कत्था)अपने उत्तराखण्ड से जाता था। एक बार फिर भाव सुनकर हृदय घात होने की बारी थी किसी तरह ढेड़ सौ रूपये में मजदूरी मात्र वापस आयी चीन से आने वाली सौ सवा सौ रूपये किलो मूसली हजारों टन की मात्रा में आसानी से उपलब्ध थी। अगले वर्ष एक हजार स्क्वायर मीटर के पॉली हाउस में ताऊजी द्वारा जरबेरा फ्लावर की खेती शुरू हो गयी,फूल ऐसी उच्च गुणवत्ता के खिले की हालेंड़ बेल्जियम और लक्सेम्बर्ग में भी शायद इतने बेहतरीन हो पाते यकीन मानिए किसी किसी दिन दस या पन्द्रह पैसे प्रति फूल बिका और किसी दिन बिका ही नही। हमारे खेतो की फोटो दिखा दिखा कर न जाने कितने उद्यान और जलागम,कृषि अधिकारी तरक्की की सिढीया चढ़ गए कभी एशियन डेवलपमेंट के सभी वर्ड बैंक कभी नाबार्ड जैसी संस्थाओं के जापान,डेनमार्क,स्वीडन और अन्य देशों से आने वाले प्रतिनिधियों को ये सब दिखा दिखा कर भारत द्वारा लिए गए लोन को वैधता और प्रासंगिकता प्रदान की जाती रही। यह सब इसलिए बताना पड़ा,क्योंकि हमारे प्रदेश में इन दिनों हजारों की संख्या में मजदूर या मध्यम वर्ग के लोग वापस लौट रहे हैं और देश से वापस लौटते हुए हजारों मजदूरों की दुर्दशा देख वे लोग भी द्रवित हैं बड़ी-बड़ी क्रन्तिकारी और मर्मज्ञ तत्वदर्शी संतो जैसी उदारता और करुणा से भरी पोस्ट कर रहे है जो जीवन भर ऊंचे ओहदों पर रहे ऊंचे राजनैतिक आर्थिक परिवारों के कुलीन वर्गो से सम्बन्ध रखते रहे बड़ी-बड़ी़ जमीनों के मालिक रहे कम्फर्ट जोन में रहे। इनकी पत्नियां अपना रंग उड़़ चुका कोई कुरता कामवाली को इतना सोच सोच के देती है जितना राफेल की खरीदारी में भारत सरकार ने न सोचा हो और एक कुरता दान करने के बाद दान की श्रेणी में वे अपने को वारेन बफेट और बिल्गेटस के समकक्ष पाती हैं काश फोर्ब्स और टाइम जैसी विश्व विख्यात संस्थाएं इन अभिजात्य महिलाओं के इन महान आचरणों का संज्ञान ले पाती। ये वो सब लोग है जो हमेशा से सिक्योर स्थिति में हैं व्यवस्था के ऊंचे पदों में हैं और व्यवस्था में रहते हुए इन्होंने न जाने कितने ही लोगों और प्रवृतियों का शोषण किया हो। भावनाओ के स्तर पर मजदूरों की स्थिति पर मार्क्स और लेनिन और इस मसीह से आगे बढ चुके बड़ी-बड़ी बातें करने वाले ऐसे लोगो से घरेलू नौकरानी के लिए कठिन वक्त पर दो हजार रुपये तक नही निकल पाते। सरकारें मजदूर और गरिबों को सम्हालने में सदा सदा से ही नाकामयाब रही है। कुछ लोग उत्तराखण्ड में आई इस भीड़ को स्वरोजगार से जोड़ रही है खेती सबसे पहला ऑप्शन है वे लोग इसे सुझा रहे हैं जिन्हें यह पता नही की कुदाल को कैसे चलाया जाता है जिनके बच्चे तोते जैसी आंखे फैलाने लगते है जब उन्हें पता चलता है कि पॉपकॉर्न मक्की जैसे दिखने वाली एक चीज से पैदा होता है की चावल धान से होता है फैक्ट्रियों में नही। अगर सारे उत्तराखण्ड के एक एक खेत में भी हम साल भर फसल उगा ले में यकीन से कहता हूं हम साल भर के लिए आवश्यक पूंजी तक नही जुटा सकते और अभी तो असिंचित खेत,बंटी हुई छोटी जोतें,गोल खाते अनुर्वर जमीन जंगली जानवर,फसलों की बीमारियां असंख्य कारक है जो इन सुकुमारों को पता ही नही हैं। रोटी रोटी की समस्या नही होती तो देश भर से अपने अपने गांव घर छोड़ कर करोड़ों की संख्या में लोग महानगरों की ओर न जाते। आज मौत के भय से जब ये लोग वापस लौट रहे हैं तो मुझे समझ नही आता की न जाने किस प्रेरणा से ये गांव की ओर लौट रहे हैं। एक दो महीने तक तो गिरते पड़ते सरकार इन्हें दो वक्त की रोटी दे भी दे (जबकि यह भी अनिश्चित ही है ) उसके बाद क्या होगा न रोजगार के अवसर न संसाधन। इतनी कच्ची आस पे लोग गांव लौट रहे है जो उनके लिए दो जून की रोटी तक नही जुटा सकता। असली महामारी तो अब इंतजार कर रही है।