सन्त रैदास अतुलनीय दिव्य व प्रखर व्यक्तित्व के शिरोमणि सन्त थे
प्रदीप कुमार
श्रीनगर गढ़वाल।हमारा भारत वर्ष सदियों से ऋषि मुनियों की तपस्थली रहा है। इसकी धरा पर दिव्य महाविभूतियों का अवतरण होता रहा है। जिन्होंने अपनी अमृत मयी वाणी से पूरे विश्व को आलोकित एवं अनुप्राणित किया। सन्त रैदास भी इन्हीं दिव्य महाविभूतियों में से एक थे। सन्त रैदास मध्य काल में एक भारतीय संत कवि सतगुरु थे। इनके अतुलनीय कार्यों पर सन्त समाज ने इन्हें सन्त शिरोमणि,सन्त गुरु की उपाधि से विभूषित किया।ये इस तरह के दिव्य सन्त थे,जिन्होंने जाति-पाति का विरोध करके जन समाज को आत्म ज्ञान का मार्ग दिखाया। सन्त रैदास का जन्म माघ मास की पूर्णिमा को 12 फरवरी 1376 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर के गोवर्धन गांव में हुआ।माता का नाम कर्मा देवी पिता का नाम सन्तोष दास था।चर्म कार कुल में पैदा होने के कारण वे जूता बनाने का काम करते थे। अपना कार्य बड़ी निष्ठा के साथ करते थे।जब इस महाविभूति का अवतरण हुआ,उस समय उत्तर भारत में मुगलों का शासन था।चारों ओर अत्याचार,ग़रीबी,भ्रष्टाचार,अशिक्षा का बोलबाला था। नैतिक मूल्यों का पतन था।हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की प्रक्रिया लगातार चल रही थी।सन्त रैदास की ज्ञान गंगा चारों ओर फैले रही थी।लोग इनकी ओर ज्यादा आकर्षित हो रहे थे।लोगों को सम्बल इनके विचारों से मिल रहा था। हिन्दू, मुसलमान दोनों ही इनके शिष्य बन रहे थे।इनका मानना था कि उच्च जाति में जन्म लेने से कोई महान नहीं बनाता।महानता उच्च विचारों के साथ आत्मसात करने से बनती है। व्यक्ति के कार्यों से ही उसकी पहचान बनती है।सन्त रैदास बड़े दयालु और परोपकारी स्वभाव के व्यक्ति थे।दूसरे की मदद करने में इन्हें बड़ा आनन्द आता था।हर पल हर क्षण प्रभु का स्मरण करके ही कार्य करते थे।एक बार एक ब्राह्मण अपने जूते ठीक करने के लिए इनकी कुटिया में आया।उसने कहा कि मैं गंगा स्नान करने जा रहा हूं। सन्त रैदास ने ब्राह्मण के जूते ठीक करके कहा कि आप मेरी ओर से भी मुद्रा मां गंगा को अर्पित कर देना। रैदास ने एक मुद्रा गंगा में अर्पित करने के लिए ब्राह्मण को अर्पित की।ब्राह्मण जब गंगा पहुंचा,स्नान करके जैसे ही रूपया गंगा में डाला,गंगा मैया सोने का सुन्दर कंगना ब्राह्मण को देते हुए कहा कि इसे मेरे भक्त सन्त रैदास को देना। सुंदर कंगने को देखकर ब्राह्मण के मन में लालच आ गया। ब्राह्मण ने मन बनाया कि मैं इसे राजा को भेंट करुंगा,राजा निश्चित ही इसके बदले मुझे अपार धन देगा। हुआ भी ऐसा ही। जैसे व्राहमण ने राजा को कंगना भेंट किया,तो राजा ने बहुत सारा धन राजा को अर्पित कर दिया।राजा ने खुशी खुशी से कंगन अपनी रानी को दे दिया।कंगन को देखकर रानी ने कहा कि कंगन बहुत सुंदर है,लेकिन ये तो केवल मेरे एक ही हाथ के लिए है। दूसरे हाथ के लिए भी चाहिए।राजा ने तुरंत ब्राह्मण के लिए फरमान जारी किया कि यदि सोने का दूसरा कंगन नहीं लाया जाता है तो,तुम्हें मृत्यु दण्ड दिया जायेगा। इस फरमान को पढ़कर ब्राह्मण डरते हुए सन्त रैदास के पास गया,सन्त रैदास को पूरी घटना से परिचित कराया। रैदास इतनी दयालू प्रवृत्ति के सन्त थे कि उन्होंने अपनी कठौती में ही मां गंगा का आवाहन किया। मां गंगा ने सन्त रैदास को सुन्दर कंगन भेंट कर दिया। रैदास ने वह कगनब्राह्मण को भेंट किया। ब्राह्मण ने उस कंगन को राजा को देकर अपनी जान बचाई। हमेशा के लिए सन्त रैदास का चेला बन गया।सन्त रैदास का मानना था कि हमें कभी भी किसी तरह का अंहकार नहीं करना चाहिए।अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर होते हुए ही ईश्वर के दर्शन करने चाहिए।इस प्रकार आदर्श समाज का निर्माण करते हुए यह सूर्य वाराणसी में 1540 ईस्वी को पंच तत्व में विलीन हो गया। आज भी आदर्श सन्त समाज के निर्माण के लिए इनका व्यक्तित्व व कृतित्व प्रासंगिक है।