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सूचित सहमति केवल कानूनी नहीं शोधार्थियों का नैतिक दायित्व भी-प्रो.माथुरिया

प्रदीप कुमार
श्रीनगर गढ़वाल। जैव चिकित्सा और स्वास्थ्य अनुसंधान में सम्मिलित मानव प्रतिभागियों को अनुसन्धान की विस्तृत जानकारी देकर उनकी सूचित सहमति प्राप्त करना केवल एक क़ानूनी प्रक्रिया ही नहीं,अपितु प्रतिभागियों के अधिकारों की रक्षा के लिए शोधार्धियों का नैतिक दायित्व भी है। यह बात प्रो.जे.पी.माथुरिया,डीन,उत्तर प्रदेश पैरामेडिकल साइंसेज विश्वविद्यालय,इटावा,ने हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय की संस्थागत नैतिक समिति द्वारा ‘जैव चिकित्सा और स्वास्थ्य अनुसंधान में नैतिक दृष्टिकोण’ विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र के दौरान सूचित सहमति (Informed Consent) के महत्व को रेखांकित करते हुए कही। इस संगोष्ठी का आयोजन विश्वविद्यालय के चौरस परिसर में स्थित एमएमटीटीसी,भवन में हाइब्रिड मोड में किया गया।विशिष्ट अतिथि प्रो.इंदू पांडे खंडूरी ने जैव चिकित्सा और स्वास्थ्य अनुसंधान में नैतिक आचरण पर अपने विचार साझा किए। उन्होंने बताया कि अनुसंधान में नैतिकता कोई स्थिर या निश्चित सिद्धांत नहीं है,बल्कि यह समय और परिस्थितियों के अनुसार विकसित होता है। उन्होंने मानवाधिकारों,प्रतिभागियों के हितों की सुरक्षा और अनुसंधान में पारदर्शिता की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने पारंपरिक भारतीय दर्शन,विशेष रूप से पंचकोष सिद्धांत,को अनुसंधान के नैतिक दृष्टिकोण से जोड़ते हुए कहा कि स्वास्थ्य अनुसंधान को केवल भौतिक शरीर तक सीमित नहीं रखना चाहिए,बल्कि मानसिक,सामाजिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए। उदघाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो.आर.एस.नेगी ने कृषि जैव प्रौद्योगिकी और ग्रामीण स्वास्थ्य अनुसंधान में नैतिकता पर चर्चा की। उन्होंने जीएम (अनुवांशिक रूप से परिवर्तित) फसलों के प्रभाव,पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों की सुरक्षा और खाद्य सुरक्षा से जुड़े नैतिक मुद्दों पर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने बताया कि बायोपायरेसी (Biopiracy) और बड़े कॉर्पोरेट संस्थानों द्वारा जैविक संसाधनों के दोहन से स्थानीय समुदायों को हानि होती है,जिससे अनुसंधान में पारदर्शिता और न्यायसंगत नीति निर्माण की आवश्यकता बढ़ जाती है।इस संगोष्ठी में विभिन्न क्षेत्रों के कुल 70 विशेषज्ञों,शिक्षाविदों,शोधकर्ताओं और छात्रों ने भाग लिया और अनुसंधान में नैतिकता से जुड़े विविध पहलुओं पर चर्चा की। उन्होंने उन चुनौतियों पर प्रकाश डाला जो विशेष रूप से अशिक्षित,मानसिक रूप से असक्षम और हाशिए पर मौजूद समुदायों के लोगों के लिए अनुसंधान में भागीदारी के दौरान उत्पन्न होती हैं। संगोष्ठी के संयोजक एवं संस्थागत नैतिक समिति के सचिव डाॅ.राहुल कुंवर सिंह ने अतिथियों का स्वागत करते हुए कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की एवं शोधार्थियों को संस्थागत नैतिक समिति के अनुमोदन के पश्चात ही शोध कार्य करने की सलाह दी। संस्थागत नैतिक समिति की सदस्य,डाॅ.पूजा सकलानी,ने उद्घाटन सत्र के अतिथियों को धन्यवाद ज्ञापित किया। संगोष्ठी के आयोजक सचिव डाॅ.डिगर सिंह थे। संगोष्ठी के तकनीकी सत्र में विभिन्न विशेषज्ञों ने अनुसंधान नैतिकता के विविध आयामों पर प्रकाश डाला। डॉ.महेश भट्ट,सर्जन,लेखक एवं स्वास्थ्य सलाहकार,देहरादून,ने जैव चिकित्सा अनुसंधान के नैतिक ढांचे पर चर्चा की। उन्होंने अनुसंधान के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समझाते हुए बताया कि कैसे अतीत में नैतिक उल्लंघनों से सीख लेकर आज नैतिक दिशा-निर्देश बनाए गए हैं।डॉ.मयंक गंगवार,भारतीय चिकित्सा अनुसन्धान परिषद्,नई दिल्ली,ने जोखिम मूल्यांकन और प्रतिभागियों की सुरक्षा पर जोर दिया। उन्होंने अनुसंधान में जोखिम और हानि के विभिन्न प्रकारों (शारीरिक,मानसिक,सामाजिक,पारिस्थितिकीय) के आकलन और उनके शमन के उपायों पर चर्चा की। प्रो.अब्दुल फारुक ने नैदानिक परीक्षणों की नैतिकता पर बात की। उन्होंने गुड क्लीनिकल प्रैक्टिस (GCP) और हेलसिंकी घोषणा (Declaration of Helsinki) जैसे अंतरराष्ट्रीय दिशानिर्देशों पर प्रकाश डालते हुए बताया कि कैसे नैदानिक परीक्षणों में प्रतिभागियों की सहमति,गोपनीयता और निष्पक्ष चयन सुनिश्चित किया जाता है।डॉ.संजय कुमार,शारदा विश्वविद्यालय,नोएडा,ने मानव प्रतिभागियों पर अनुसंधान में नैतिक दिशा-निर्देशों की अनिवार्यता को स्पष्ट किया।उन्होंने बताया कि अनुसंधान में शामिल प्रतिभागियों की गोपनीयता और स्वायत्तता बनाए रखना आवश्यक है। उन्होंने संस्थागत नैतिक समितियों की भूमिका को रेखांकित किया,जो अनुसंधान प्रोटोकॉल की समीक्षा कर नैतिकता सुनिश्चित करती हैं।संगोष्ठी के अंतिम सत्र में प्रो.जे.पी.भट्ट ने संवेदनशील और हाशिए पर मौजूद समुदायों की सुरक्षा पर अपने विचार रखे।उन्होंने बताया कि अनुसंधान में शामिल अल्पसंख्यक,आर्थिक रूप से पिछड़े लोग,महिलाएं,वृद्ध,दिव्यांग और शरणार्थी अधिक संवेदनशील होते हैं,और उनके साथ अनुसंधान करते समय विशेष सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है। उन्होंने नैतिकता से जुड़े न्याय,उपकार और अहिंसा जैसे बुनियादी सिद्धांतों को लागू करने की जरूरत बताई।तकनीकी सत्रों का संचालन क्रमशःडाॅ.पूजा सकलानी,डॉ.संजय पटेल,डाॅ. सौरभ यादव,एवं डाॅ.विनीत मौर्या ने किया। संगोष्ठी के समापन पर वक्ताओं और प्रतिभागियों ने अनुसंधान नैतिकता के बढ़ते महत्व को दोहराया। इस बात पर जोर दिया गया कि अनुसंधान में वैज्ञानिक नवाचारों के साथ-साथ नैतिक मूल्यों को भी प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी ने शोधकर्ताओं,छात्रों और शिक्षाविदों को अनुसंधान नैतिकता की गहरी समझ विकसित करने का अवसर प्रदान किया। कार्यक्रम का मुख्य निष्कर्ष यही रहा कि वैज्ञानिक अनुसंधान में पारदर्शिता,निष्पक्षता और सामाजिक कल्याण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए,ताकि अनुसंधान मानवता के हित में प्रभावी और न्यायसंगत तरीके से आगे बढ़ सके। कार्यक्रम में सूक्ष्म जैविकी एवं योग विभाग के शोधार्थियों का विशेष सहयोग रहा।

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