प्रदीप कुमार श्रीनगर गढ़वाल:-
हे पहाड़ की नारी,तू कभी भी कै सूरत मा नि हारी।
घौर-बौंण,भैर-भित्र,ब्वारी बणी घूमी सारी-सारी।।
सैरा घौरा काम धन्दा निपटै की जांदी इच्छा मार-मारी।
हे पहाड़ की नारी,कभी भी कै भी सुरत मा तू नि हारी।।
घाम पांणी देर-सवेर होण पर भी,लगैने तिन सारियूं की फेरी।
जरा बैठी धौ भी नि खाई,फिकर ही नियति बणी तेरी।।
जब से सैसुर ऐ छै,तब से सदनी मशीन बणी रै।
कुटमदरी को सैरो काम-धाम,अपणी परवाह नि करी भी खड़ी रै।।
कैन भी तेरी ई दशा पर,मीठा बोल नि बोली,ते पर तरस नि खाई।
मैत बटी मैं भुला कभी ऐ होला,उं दगडे द्वी छंवी लगौंण मौका नि राई।।
घौर बोंण भैर-भित्र,ब्वारी बणी, घूमी तू सारी-सारी।
हे पहाड़ की नारी,तू ई हालत मा भी नि हारी।।
सैसुर वला सोचदन,अब ब्वारी ऐगे ईकी च सैरी जिम्मेदारी।
हम त अपणा घोर मूं छा,ब्वारी तें भी त जांण दया मैत कबरी।।
बोझ उन्नी गरो॔,उन्नी चप्पल टुटयां,मुंख मा पसिन्यां धारा।
करवी विसौण बि नी,उकाल उंदयार गारे-गारा।।
डौर रै कखी देर होली,सासु-ससुरा गुस्सा करला भारी।
फफेण्डा-फफेण्डों मां कखी ठोकर लगे,कखी हाथ कटे सारी।।
हे पहाड़ की नारी,तू कभी भी कै भी सूरत मा नि हारी।
बछेंद्री पाल बणी तू चढ़ी ऐवरेस्ट की उकाल सारी।।
तीलू-रौतेली,रैणी गौरा देवी,कतनै छन तेरी जनि पहाड़ की नारी।
हे पहाड़ की नारी,तू भैं का सौं कै भी सुरत मा नि हारी।।
कवि-विमल चन्द्र काला (गोपी) भू.पू.सैनिक,ग्राम-सुमाड़ी श्रीनगर गढ़वाल।
