माण्डव ऋषि की तपस्थली मांडा कुटिया,जहां विराजते हैं स्वयं रघुनाथ
प्रदीप कुमार श्रीनगर गढ़वाल। हिंदू पौराणिक कथाओं में उत्तराखंड की देवभूमि को ऋषि मुनि आदि गुरु शंकराचार्य की तपोस्थली और वेदों की भूमि कहा गया है और भारत के अन्य प्रान्तों से आए ऋषि मुनियों की तपो धरती और वेदों की भूमि रही है,उत्तराखंड की महान भूमि में महाज्ञानी कठोर तपस्वीयों की तप कुटिया रही है। रमते रमया सार्द्धं तेन रामं विदुब्र्बुधा:। रमाणां रमणस्थानं रामं रामविदो विंदु:।। श्री रघुनाथ की तप स्थली मांडा कुटिया श्रीनगर से 4200 मीटर की दूरी पर कीर्तिनगर विकासखंड के निकटवर्ती गांव जाखणी-घिल्डि़यालगांव में स्थित माण्डव ऋषि की तपस्थली है। यह स्थान बहुत ही रमणीक सुंदर और मन को शांति प्रदान करने वाला है। इस विषय में क्षेत्र के प्रदीप रावत ने बताया कि लोक मान्यताओं के अनुसार श्रीराम प्रभु ने इस स्थान को अपनी तपस्थली बनाया था जो वर्तमान में भी यहां पर श्री रघुनाथ का मंदिर स्थापित है। स्थानीय निवासी राम प्रसाद घिल्डियाल ने बताया कि यह मंदिर पूर्व में प्राचीन शैली से बना हुआ था जिसके अवशेष आज भी यहीं पड़े हुए हैं, कुछ वर्ष पूर्व एक प्रसिद्ध संत भारद्वाज ब्रह्मचारी द्वारा यहां पर एक कुतिया और रहने के लिए धर्मशाला का निर्माण करवाया था। भारद्वाज ब्रह्मचारी यहां प्रभात में सुबह 4 बजे नदी से स्नान ध्यान करने के उपरांत बहुत ही सुंदर बांसुरी बजाए करते थे जिससे उनकी बांसुरी की धुन से यहां का शांत वातावरण खिल उठता था। कहते हैं कि ऋषि माण्डव जिन्होंने धर्मराज को विदुर रूप में जन्म लेने का श्राप दिया था वह भी इस पावन स्थान को अपनी तपस्थली बन चुके थे। स्थानीय लोगों के द्वारा समय-समय पर इस स्थान पर सुंदरकांड का पाठ,भागवत कथा का आयोजन किया जाता है। और वर्तमान में इस स्थान पर श्रीराम,सीता माता,और लक्ष्मण के साथ ही हनुमान की प्रतिमा भी स्थापित हैं। इस विषय पर पुराण वक्ता प्रकाश चंद्र चमोली ने विस्तार पूर्वक जानकारी दी। उन्होंने बताया कि महाभारत श्रीमद्भागवत अन्य धर्म ग्रंथों में भी में माण्डव्य ऋषि का प्रसंग है इनको अणि माण्डव्य भी कहते है। एक बार कुछ चोरों ने राजकोष से चोरी की। चोरी करके वे भागने लगे। राजा के सेवकों को इस चोरी का समाचार मिला,तो उन्होंने चोरों का पीछा किया। राजा के सेवकों को पीछे आते हुए देखकर चोर घबरा गये। चोरी के माल के साथ भागना मुश्किल था। इतने में रास्ते में माण्डव्य ऋषि का आश्रम आया तो चोरों ने चुराई हुई वह सारी धन-सम्पत्ति उसी आश्रम में फेंक दी और भाग खड़े हुए। राजा के सैनिक पीछा करते हुए आश्रम में आये। वहां राजकोष से चुराई गई सारी धन संपत्ति को देखकर उन्होंने मान लिया कि यह माण्डव्य ऋषि ही चोर हैं। उन्होंने ऋषि को पकड़ा और धन-संपत्ति के साथ राजा के समक्ष उपस्थित कर दिया। राजा ने देहांत दण्ड दिया। अब माण्डव्य ऋषि को वधस्तंभ पर खड़ा कर दिया गया। वे वहीं पर गायत्री मन्त्र का जाप करने लगे। माण्डव्य मरते ही नहीं हैं। ऋषि का दिव्य तेज देखकर राजा को लगा कि यह तो कोई तपस्वी महात्मा लगते हैं। राजा भयभीत हो गया। ऋषि को वधस्तंभ से नीचे उतारा गया। सारी बात जानकर राजा को दुःख हुआ और पश्चाताप होने लगा कि मैंने निरपराध ऋषि को शूली पर चढ़ाना चाहा। माण्डव्य ऋषि से क्षमा करने के लिए प्रार्थना की। माण्डव्य ऋषि कहते हैं- राजन तुम्हें तो मैं क्षमा कर दूंगा,पर यमराज से पूछूंगा कि मुझे ऐसा दण्ड क्यों दिया,मैंने कोई पाप नहीं किया, फिर भी मुझे ऐसा दण्ड क्यों दिया,मैं यमराज को क्षमा नहीं कर सकता। यमराज की सभा में आकर ऋषि ने यमराज से पूछा कि जब मैंने कोई भी पाप नहीं किया है तो भी मुझे शूली पर क्यों चढ़ाया गया,शूली पर लटकाने की सजा मुझे मेरे कौन से पाप के लिए दी गई,यमराज घबरा गये। उन्होंने सोचा कि यदि कहूंगा कि भूल हो गई तो ये मुनि मुझे शाप दे देंगे। अत:उन्होंने ऋषि से कहा कि जब आप तीन बरस के थे,तब आपने एक तितली को कांटा चुभोया था,उसी पाप की यह सजा दी गई है। जाने या अनजाने जो भी पाप किया जाये,उसका दण्ड भुगतना ही पड़ता है। भगवान पाप को नहीं स्वीकार करते। पुण्य कृष्ण अर्पण हो सकता है,पाप नहीं,पाप तो भोगना ही पड़ेगा। अन्यथा पाप का नाश नहीं हो सकता। परमात्मा को हमेशा पुण्य समर्पित करो। सदा यही सोचो कि सजा मैं सह लूंगा और ठाकुर जी को सर्वोत्तम वस्तु अर्पित करनी चाहिए। इसका नाम ही भक्ति है,भगवान को पुण्य ही समर्पित किये जाने चाहिए। माण्डव्य ऋषि ने यमराज से कहा शास्त्र की आज्ञा है कि यदि अज्ञान अवस्था में कोई मनुष्य कुछ पाप कर दे तो,उसका उसे स्वप्न में दण्ड दिया जाये। मैं बालक था अत:अबोध था,इसलिए उस समय किये गये पाप की सजा तुम्हें मुझे स्वप्न में ही देनी चाहिए थी,तुमने मुझे अयोग्य प्रकार से दण्ड दिया है।
